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लम्हा-लम्हा पिघलती आवाज़ें / ज्ञान प्रकाश विवेक

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लम्हा-लम्हा पिघलती आवाज़ें
दूर तक साथ चलती आवाज़ें

एक बूढ़ा - सा रेडियो घर में
खरखरा कर निकलती आवाज़ें

सुबह से शाम तक वही मंज़र
सिर्फ़ कपड़े बदलती आवाज़ें

सीड़ियों से मुंडेर तक,शब भर—
चाँदनी की टहलती आवाज़ें

फिर नहीं आया काबुली वाला—
उसकी यादों में पलती आवाज़ें

धूप के डाल कर नए जूते—
आज इठला के चलती आवाज़ें

शोर फुटबाल जैसा गलियों में
खिड़कियों से उछलती आवाज़ें