पिता और शब्दकोश / मनोज चौहान
जिल्द में लिपटा
पिता का दिया शब्दकोश
अब हो गया है पुराना
ढल रही उसकी भी उम्र
वैसे ही
जैसे कि पिता के चेहरे पर
नज़र आने लगी हैं झुर्रियाँ
मगर डटे हैं मुस्तैदी से
दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर l
अटक जाता हूँ कभी
तो काम आता है आज भी
वही शब्दकोश
पलटता हूँ उसके पन्ने
पाते ही स्पर्श
उँगलियों के पोरों से
महसूस करता हूँ
कि साथ हैं पिता
थामे हुए मेरी ऊँगली
जीवन के मायनों को
समझाते हुए
राह दिखाते
एक प्रकाशपुंज की तरह l
जमाने की कुटिल चालों से
कदम-कदम पर छले गए
स्वाभिमानी पिता
होते गए सख्त बाहर से
वह छुपाते गए हमेशा ही
भीतर की भावुकता को l
ताकि मैं न बन जाऊँ
दब्बू और कमजोर
और दृढ़ता के साथ
कर सकूँ सामना
जीवन की
हर चुनौती का l
उनमें आज भी दफ़न है
वही गुस्सा
खुद के छले जाने का
जो कि फूट पड़ता है अक्सर
जिसे नहीं समझना चाहता
कोई भी l
सीमेंट और बजरी के स्पर्श से
बार–बार जख्मी होते
हाथों व पैरों की उँगलियों के
घावों से
रिसते लहू को
कपड़े के टुकड़ो से बाँधते
ढाम्पते और छुपाते
उफ़ तक न करते हुए
कितनी ही बार
पीते गए हलाहल
अनंत पीड़ा का l
संतानों का भविष्य
संवारने की धुन में
संघर्षरत रहकर ता उम्र
खड़ा कर दिया है आज
बच्चों को अपने पांवो पर l
अब चिंताग्रस्त नहीं हैं वे
आश्वस्त हैं
हम सबके लिए
मगर फिर भी
हर बार मना करने पर
चले जाते हैं
काम पर आज भी
घर पर खाली रहना
कचोटता है
उनके स्वाभिमान को l
पिता आज बेशक रहते हैं
दूर गाँव में
मगर उनका दिया शब्दकोश
आज भी देता है सीख
और एक अहसास
हर पल
उनके पास होने का l