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मजदूर की व्यथा / मनोज चौहान

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मैं पिरो देना चाहता हूँ
कविता की इन चंद पंक्तियों में
शोषण के शिकार
उस मजदूर की व्यथा को।

दिन भर काम करने के
उपरान्त भी
नहीं होता सही आंकलन
जिसकी अथाह मेहनत का।

बंद है जिसकी किस्मत
चंद ठेकेदारों की मुठ्ठी में
साक्षात प्रारूप है वह
इस गले-सडे। समाज की
हैवानियत का।

सीमेंट, बजरी और गारे में
मिलाता जाता है वह
लहू अपना
तबदील कर पसीने में
ताकि खड़ी हो सकें
सुदृढ़, टिकाऊ और
गगनचुम्बी इमारतें l

बरसात में टपकती हुई
छत के नीचे
दो जून रोटी की चिंता
कतर जाती है हर बार
उसके पंखों को l

अपनी जागती हुई आंखों में
वह संजोये हुए है सपने
कि बदलेगी
कभी न कभी व्यवस्था
और खाव्हिशों के फलक पर
भर पायेगा वह भी
एक दिन
हौंसलों की उड़ान!