चिलचिलाती धुप में
पत्थर तोड़ती वह प्रवासी औरत
उठाती है हथौड़े को
हर बार प्रचंड बेग से l
प्रहार करती है इस तरह
मानो
कर देना चाहती है खंड–खंड
अपने जीवन की
तमाम विपत्तियों को भी l
कठोर परिश्रम से
बज्र हो चूका है उसका शरीर
मगर सहेज रखा है उसने
एक कोमल व स्नेहिल
मातृ ह्रदय अपने भीतर l
माथे पर आई
पसीने की बूंदों को
पोंछती है वह
और थोड़ी ही दूर
छाया में सुलाए शिशु को
देखती है नज़र भर l
सुरक्षित और सुकून में पाकर उसे
तैर पड़ती है
एक हल्की-सी मुस्कान
उसके चेहरे पर l
दुगनी ताकत और जोश से
उठाती है वह हथौड़ा
इस बार
कर देने चूर–चूर
पाषाण के अभिमान को l