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वृक्ष हो जाना / मनोज चौहान

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अकुंरित तो हो जाता है
एक बीज
उष्ण धरा पर भी
हल्की नमी की
छुहन मात्र से ही
बेशक रहता है वर्षों तक
कुपोषित पौधा बनकर l

रहकर क्षुधित
झेलता है मार
क्रूर मौसम की
विपरीत परिस्थितियों में भी
निज अस्तित्व बचाने को
अड़ा रहता है निरंतर l

अभिलाषा है मात्र
बनना एक उन्नत वृक्ष
देना चाहता है फैलाव
अपनी कोमल टहनियों को
बन कर अजस्त्र स्रोत
औषधि, फल व छाया का
मिटाना चाहता है थकान
हर पथिक की l

चाहता है महसूस करना
उस आत्मीय सुख को
जब कलरव करते
पखेरू
नीड़ों का निर्माण कर
इठलायेंगे
उसकी बलिष्ठ भुजाओं पर l

सदैव संघर्षरत रहकर
और श्रमशील होकर
सम्बल पाकर
सालों के अथाह सयंम
एवं जिजीविषा से
प्रवेश कर जाता है एक दिन
वृक्ष बनने की
प्रक्रिया में l

और अंततः हो जाता है
भरा पूरा वृक्ष
सेवा भाव से लबालब!