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गोधूलि / हरीशचन्द्र पाण्डे
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दुनिया की रंगत देख चुका वह युगल
धीरे-धीरे चल रहा है
गोधूलि बेला है
मांसपेशियाँ पहले का आकार छोड़ चुकी हैं
काले बाल रूई का आकार ले चुके हैं
न चाल में त्वरा, न आवाज़ में वज़न
वही बोल रहे हैं, वही सुन रहे हैं
चक्की के दो पात हैं ये
चलते-चलते थक गए अब
अपने हिस्से का पूरा पिसान दे चुके हैं दुनिया को
मोटे को महीन बनाया
बहुत सुपाच्य
दोनों चल रहे हैं, हल्का-सा फ़ासला लिए
लगातार घिसने के बाद जैसे पाट ले लेते हैं
न लें, तो टकरा जाएँ बार-बार
बीच में छूट गई यह जगह
वह गलियारा है
जहाँ से हवा गुज़रती है
और स्मृतियाँ भी...।