भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

साँझ हो गई / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:54, 30 मई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

साँझ हो गई
अनुरागी किरनें
कहीं खो गई,
बिखरे हैं कुंतल
घने तम-से
विचुम्बित गगन
तृष्णा मुखर
अतीत के वे स्वर
मौन हो गए
जीवन की तरंग
स्पर्श तुम्हारा
पुकार रस- भरी
मेरी उमंग
कण्ठ स्वाति बूँद को
कलपे बाट जोहे।