जन मन के सजग चितेरे / नागार्जुन
कवि केदारनाथ अग्रवाल के लिए
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे बाँदावाले !
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे साहब काले !
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे आम मुवक्किल !
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे शासन की नाकों पर के तिल !
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे ज़िला अदालत के वे हाक़िम !
तुम्हें भला क्या पहचानेंगे मात्र पेट के बने हुए हैं जो कि मुलाज़िम !
प्यारे भाई, मैंने तुमको पहचाना है
समझा- बूझा है, जाना है…
केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो !
कालिंजर का चौड़ा सीना, वह भी तुम हो !
ग्रामवधू की दबी हुई कजरारी चितवन, वह भी तुम हो !
कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें, वह भी तुम हो !
खड़ी सुनहली फ़सलों की छवि-छटा निराली, वह भी तुम हो !
लाठी लेकर कालरात्रि में करता जो उनकी रखवाली वह भी तुम हो !
जनगण-मन के जाग्रत शिल्पी,
तुम धरती के पुत्र : गगन के तुम जामाता !
नक्षत्रों के स्वजन कुटुम्बी, सगे बन्धु तुम नद-नदियों के !
झरी ऋचा पर ऋचा तुम्हारे सबल कण्ठ से
स्वर-लहरी पर थिरक रही है युग की गंगा
अजी, तुम्हारी शब्द-शक्ति ने बाँध लिया है भुवनदीप कवि नेरूदा को
(कविता का एक अंश)