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सुर्खियाँ आजकल / प्रेमलता त्रिपाठी
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मन दुखाती रहीं झलकियाँ आजकल ।
लोग कसते जहाँ फब्तियाँ आजकल ।
कान कोकिल बचन को तरसते यहाँ,
क्रूर नारे बने सुर्खियाँ आजकल ।
एक दूजे मिले आपसी मेल हो,
बात है वह नहीं दरमिंयाँ आजकल ।
कहकहों में डुबाती रही शाम जो,
छा रहीं हैं अजब सुस्तियाँ आजकल।
नेह भरते कहाँ पर्व त्योहार अब,
है न मधुमास सी कांतियाँ आजकल
स्वार्थ मिटता नहीं बात कैसे बने,
यों न मीठी लगें बोलियाँ आजकल ।
लौट फिर शांति के राह पर हम चलें,
प्रेम भेजे वही अर्जियाँ आजकल ।