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प्रात करे शृंगार / प्रेमलता त्रिपाठी

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गगन चूमता गिरि शिखर,प्रात करे शृंगार ।
दिशि प्राची मन मोहिनी,कंचन पहने हार ।

मुदित हुआ जनु बाल रवि,कंदुक रहा उछाल,
गगनाँचल से हो रही, खुशियों की बौछार ।

नीली छतरी के तले, जीवन के हर रूप,
भोग व्याधि संघात से,बचा न कोई द्वार ।

भूख,ग़रीबी यातना, रोटी की अरदास,
पड़े दीन असहाय का,धरा-गगन घर बार ।

खपा चलीं हैं पीढियाँ,अपने पन का मंत्र,
आस भरे आकाश का,दाता पालन हार ।

बरखा सावन फागुनी,शीत साँवरी रात,
शून्य; नहीं ये प्रेम नभ,समझो सब विस्तार।