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शुचिता ही शृंगार / प्रेमलता त्रिपाठी

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मन दर्पण में जिसे बिठाया,उठती वही पुकार,
अर्थ अनर्थ सभी जीवन में,शुचिता ही शृंगार ।

झूठ सत्य पर भारी हो क्यों,सहो नहीं अभिशाप,
मत रहना अवरुद्ध कंठ अब,भर दो तुम हुंकार ।

रहते मद में चूर सदा जो, दंभ भरें आकाश
करें खोखला अंतस प्रतिफल,अंत हुए लाचार ।

बाधाओं को चूम प्रकृति भी, देती है मधुमास,
सुख दुख के ताने बाने का,सुंदर यह उपहार ।

पंख खुले नन्हीं चिड़िया भी,छूना चाहे व्योम,
रहें यथार्थ अवगत सदा हम,स्वप्न करें साकार ।