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स्वप्न / जीवनानंद दास / चित्रप्रिया गांगुली

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पाण्डुलिपि पास रखकर
धूसर दीप के पास
नि:स्तब्ध बैठा था मैं;

शिशिर धीरे-धीरे गिर रहा था
नीम की शाखा से एकान्त का पँछी
उतरकर उड़ गया कोहरे में
कोहरे से दूर और भी कोहरे में
उसी के पँख की हवा से दीया बुझ गया क्या ?

अँधेरे में धीरे-धीरे टटोलते हुए
ढूँढ़कर माचिस
जब करूँगा रोशनी, किसका चेहरा दिखेगा,
बता सकते हो क्या ?

किसका चेहरा ?
आँवले की डाल के पीछे,
सींग की तरह टेढ़े नीले चाँद ने दिखाया था एक दिन, अहा !
इस धूसर पाण्डुलिपि ने देखा था एक दिन अहा !
वही धूसरतम चेहरा इस धरती के मन में

तब भी इस पृथ्वी का समस्त उजाला बुझ जाएगा जब,
सारी कहानियाँ ख़त्म हो जाएँगी जब,
मनुष्य नहीं रहेंगे जब,

रहेंगे मनुष्य के स्वप्न तब :
वह चेहरा और मैं रहूँगा उस स्वप्न में ।