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चुनौतिओं का काव्य-रूपक / लीलाधर जगूड़ी

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अर्जुन देव चारण मुझे हर मुलाकात में एक नयी जिज्ञासा, नयी समस्या और नये शब्दान्वेषित उच्चारण की तरह लगते हैं। एक ओर अनुसंधान दूसरी ओर हमारे समय के महान कथाकार विजयदान देथा की तरह प्रयोगशील लगते हैं। वे राजस्थान में पैदा हुए लेकिन शैलाधिराज तनया के जीवन को अपनी कविता का लक्ष्य बनाया। संबंधों की मर्यादा और सभ्यता का तकाजा सब कुछ सती के चरित्र में उजागर हुआ है। लेकिन समस्या महिलामुखी नहीं पुरुषमुखी ज्यादा है। खड़ी बोली हिंदी के अनुरूप राजस्थानी का मिश्रण, कविता के प्रवाह को एक उक्ति वैशिष्ठ्य प्रदान करता है। अपना मूल्यांकन करते हुए राजपुत्री पार्वती कहती है कि- ‘याद रखना था मुझे कि बेटी को विदा करने के बाद/ गरीबों की झोंपड़ियां आंसू बहाती होंगी/ …. किंतु राजमहलों के कठोर कपाट/ काठ बने/ अधिक कठोर हो जाते हैं।’ यहीं नदियों के स्वभाव से बेटियों के स्वभाव की तुलना करते हुए सती कहती है- ‘पहाड़ों से निकली नदियां कभी लौटकर पहाड़ों की तरफ नहीं आतीं…।’

स्त्री का संघर्ष और उसका अपमानित जीवन भगवान कहलाने वाले राम के यहां भी न्याय नहीं पाता है। हर बार स्त्री को ही अग्नि परीक्षा देनी होती है। हर बार उसे ही संवेदनहीन पत्थर की तरह ठुकराया जाता है। जैसे सचमुच वह देह में होते हुए भी विदेह हो।

सती, सीता, अंबा, पद्मनी, मीरा, मारवाड़ की रूठी रानी उमादे (पता नहीं इस काव्य नाटक में अहल्या कैसे छूट गयी? उदयपुर की राजकुमारी कृष्णा तक तो इस में शामिल है। शायद अहल्या की कहानी तो बनती है, भूगोल नहीं बनता, अहल्या कहीं की भी हो सकती है।) सबको तरह-तरह से अग्निस्नान करने पड़े हैं।

इन कव्य रूपकों में अर्जुन देव चारण ने स्त्री के साथ घटित विवशताओं और अन्यायों को आख्यान का विषय बनाया है। इधर हिंदी में कव्य रूपकों का अभाव दिखाई देता है। खासकर धर्मवीर भारती के ‘अंधायुग’ के बाद। चारण ने इन थीमों को एक जगह संग्रहीत कर उस अभाव की ओर भी ध्यान दिलाया है। पौराणिक प्रसंगों के वे अच्छे अध्येता और ज्ञाता हैं। दुर्गा देवी को जो ईश्वरीय गरिमा दी गयी है असल में, उस कथा में भी स्त्री को भोग्या समझने का तिरस्कार भाव शामिल है। लेकिन स्त्री की आत्मिक शक्तियों का पुनरोदय भी दुर्गासप्तशती में दिखायी देता है। मुझे उम्मीद है कि इस जटिल विषय पर भी नाटककार अपनी मति और बैद्धिक गति को आजमायेंगे। नीरज दइया को अच्छे अनुवाद के लिए बधाई।

लीलाधर जगूड़ी