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अहल्या / प्रतिभा सिंह

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सुनो राम!
जो काम और क्रोध को न जीत सके
वह संत कैसा?
और जो पत्नी की पीड़ा न समझ सके
वह कंत कैसा?
पौरुष पर स्त्रीत्व ही जले सदा
तो प्रारब्ध का अंत कैसा?
माना,
मैं हूँ पाप की भोगी,
पर गौतम भी हैं उतने दोषी।
जब पुरुष सत्ता के दर्प से
बुद्धि खंडित होने लगे
और स्त्रीत्व पर पौरुष
महिमामण्डित होने लगे,
तब विनाश निश्चित है
सभ्यताओं का,
सृष्टि का,
सृजन का, जीवन का।
जानते हो क्यों?
क्योंकि स्त्री ही
सृजन है, जीवन है
सभ्यता है
और सृष्टि का आधार है।
सुनो रघुनंदन!
इस निर्जन वन में
जब ग्रीष्म ऋतु
आग बरसाने लगी
और जलने लगी धरा
प्यास से जब तड़पने लगे पशु
और पंक्षी मरने लगे
चोच में प्यास लिए
वृक्ष सुखकर दावाग्नि में आहूत हुए
चटखने लगी भूमि
जब हवाए शुष्क होकर आग उगलने लगीं
और सूरज बन गया एक ज्वालामुखी
तब मैंने
अपने आसुओं को पीकर खुद को जीवित रखा
तो इसलिए नहीं की जीवन का मोह था
बल्कि इसलिए की
मैं खुद को बचाये रखना चाहती थी
तुम्हारे आने तक
की पूछ सकूँ कुछ प्रश्न
जिनके उत्तर शेष हैं
जिस निर्मोही हेतु
स्वर्ग को छोड़कर
पर्ण को वास बनाया
उसने ही सूखे पत्ते सा
मसल मुझे घर से बिसराया
मैं उस क्षण को कैसे भूलूँ
गौतम के अंतिम दर्शन के
बिन अपराध किये ही मैं
देख रही थी सजल नेत्र से
क्षमा माँगती जड़वत होकर
वन, प्राणी स्तब्ध खड़े थे
आँखों में गंगा की धारा
कोमल हृदय हुआ पाषाण
पर सच कह दूँ तो
रुदन मेरा इसलिए न था
बन व्यभिचारिणी हुई शापित।
इसलिए ये आँखें सजल हुई
जिसको मैंने सर्वेश्वर माना
उसको ही विश्वास न था
मेरे जीवनभर के तप का
इससे बड़ा परिहास न था
हे कौशल्या के लाल बताओ
क्यों कोई स्त्री अराधे?
पति को अपना सर्वेश्वर माने
क्यों दिवा-रात सेवा में उसकी
तन मन अपना बिसराये?
क्यों दासियों सी
रहे वह नतमस्तक होकर?
जब उसकी अनजाने में
की गई भूल भी
अक्षम्य अपराध बन जाये
तब अच्छा हो
वह अपनी ऊर्जा को समेटकर
तप और ध्यान में लगाये
ज्ञान की उपासना में रमाये
चहुदिशाओं का भ्रमण करे
और गुंजित कर दे
अपनी मीठी वाणी से
धरती आसमान को
जमा दे पैर पाताल लोक में
और उठा ले हाथ में स्वर्ग
बता दे विश्व को कि
वह एक शरीर नहीं है
जिसे बस भोगा जाये
वह पशु भी नहीं है
जिसे पराधीनता का पथ पढ़ाया जाये
उसकी भी महत्त्वाकांक्षाएँ हैं
इच्छायें हैं
आदि से अनंत तक जाने की
उसके तन-मन में भी
स्वाभिमान का ज्वार-भाटा आता है
प्रेम की लहर उठती है
क्रोध की दामिनी चमकती है
यदि उसे त्याग करना ही है
तो इच्छाओं का नहीं
संकोच और भय का त्याग करे
मिटा दे हर मिथक को
जिसमे हर हाल में
वही अपराधिनी है
समेटकर ऊर्जा
उड़ने दे स्वप्न
निर्बाध गति से
जब उसका हृदय
कुछ करने को व्याकुल है
खींचकर लम्बी सांस
बाँध लें हाथ
सम्मिलित हो जाये
अस्तित्व की दौड़ में
कि विश्व उसकी मुट्ठी में
आने को आतुर है।