Last modified on 18 जुलाई 2022, at 01:00

मेरे कमरे में धूप / प्रतिभा सिंह

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:00, 18 जुलाई 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रतिभा सिंह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मेरे कमरे में उतर आती है थोड़ी-सी गुनगुनी धूप
रोज ही सबेरे चिड़ियों की चूं-चूं के साथ।
खिड़की से पर्दों को हटाकर
रजत-सी चमकदार और फूलों-सी मुलायम।
मैं नहाना चाहती हूँ थोड़ी-सी धूप में
मनुष्य बनकर, मशीन होने से पहले
लगभग रोज ही।
मैं महसूस करना चाहती हूँ
बन्द आँखों से इसके रेशमी स्पर्श को
और देखना चाहती हूँ उसके एक-एक बिखराव को
मेरे बदन पर बिल्कुल प्रेमिका की तरह
थोड़ी-सी रोमांचित होकर।
किन्तु उसी छड़ याद आ जाता है
बच्चे का स्कूल, पति की टिफिन
सास-ससुर का नाश्ता, समय से दवाई
बाथरूम में धोने के लिए फेंके हुए कपड़े
और अंत में खुद भी तो
समय से ऑफिस पहुँचना है।
अभी अगले हप्ते ही तो बॉस ने कहा था
औरतें कामचोर होती हैं
घर-बाहर हर जगह तलाशती हैं बहाने।
मैं रुआंसी हो जाती हूँ, किन्तु रोती नहीं हूँ
रुदन मनुष्य के भाव हैं।
और मैं तो मशीन हूँ
मनुष्य बनने की इच्छा को मन में दबाकर
पुनः भागती हूँ सरपट इस उम्मीद से
कि आज समय से ऑफिस पहुँचना है
और लौटते वक्त हरी सब्जी थोड़े से फल
और राशन भी लेने हैं
पति को कहाँ फुर्सत है कि वह
नोकरी के अतिरिक्त भी समय दे सकें
गृहस्थी तो स्त्री की है
और सहेजना है उसे ही हर हाल में
मैं फिर से मशीन हो जाती हूँ
गुनगुनी घूप को मुट्ठी में समेटकर
इस आश के साथ
कि कल जरूर खोलूँगी
मशीन होने से पहले
मनुष्य होकर।