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निर्भया / विशाखा मुलमुले
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उसने समय के परे लौट के देखा
आसमां में किया सुराख़
ज़मीं पर झाँक के देखा
अपने छिन्न - भिन्न वजूद को फिर से आंक के देखा
क्या , लगा है कुछ पैबंद
यह सोच के देखा
पर अफसोस !
शर्मनाक था और भी मंजर
शून्य को ताके बस कई समूह साथ खड़े थे
उसके नाम की तख्तियां हाथ में लिए खड़े थे
मोमबत्तियाँ पिघल पिघलकर दम तोड़ चुकी थी
आग को ज्वाला न बनते देख मिट चुकी थी
अब तो हर उम्र की स्त्रियाँ उसे बेबस दिखीं
कई अबोध उम्र में दुष्कर्म की शिकार हो चुकी थी
जो जिंदा बची बस लाश बनकर रह गई
धर्म , अधर्म , नीति , निगाहों , वस्त्रों का मुद्दा बन गईं थी
कुछ विकृत मानसिकताएँ इंसानियत का बलात्कार करती रही
दरिंदों , पिशाचों की श्रेणी में समाज को ढकेलती रही