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रेत अर म्हैं / कृष्णकुमार ‘आशु’

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(अेक)
थे बूझो हो म्हां सूं
कांई सगपण है
म्हारो रेत सूं
कांई बतावूं म्हैं
नीं जाणूं दुनियांदारी
नीं पिछाणूं आपसदारी
पण म्हारी सांसां मांय मै’कै है
रेत री सौरम
कानां मांय गूंजै है
रेत रो राग
अर
हिवड़ै मांय धडक़ै है
रेत री पगपाळ

रेत मांय पळ्यो म्हैं
रेत मांय ई रळ जावूंला
पण
रेत सूं आपरो सगपण
कदै नीं जाण पावूंला।

(दोय)
रेत मांय रळतां थकां म्हैं
देखूं हूं थनै
रेत रूप मांय

रेत ई सुणाया है म्हानै
जीवण रा गीत
रेत ई जगाई है
म्हारै मनड़ै प्रीत
म्हारै हिवड़ै रै थार नै
तिरपत करती रळगी थूं
अेक दिन रेत मांय
अबै रेत ई करैली
अेक मेक म्हानै।

(तीन)
थूं ई तो म्हारै सारू
रूप है रेत रो
थनै ई चांवतो रैयो
सुपनां मांय पांवतो रैयो
करतो रैयो सदीव
आपरै हिवड़ै री मुट्ठी मांय बंद
पण ठाह नीं पड़्यो
मुट्ठी मांय सूं
कद थूं तिसळगी
रेत री भांत।

(च्यार)
रेत रै हेत रा
मोळ चुकाया म्हे
रेत मांय रळ जावांला
थार रा जाया म्हे
तावड़ै रै ताप सूं
तपता-तपता तपग्या
ताव नीं खाया म्हे
हेज म्हारो जीवण-राग
प्रेम बरसाया म्हे
रेत री प्रीत रा
गीत ई गाया म्हे।