मन-दर्पण और दर्शन है मन्त्रमुग्धा / कविता भट्ट
वीणावादिनी माँ सरस्वती के चरणों का ध्यान करते हुए इस काव्य-संग्रह का शीर्षक ‘मन्त्रमुग्धा’ मन में घर कर गया। एक रचना ‘सुनो! मंत्रमुग्ध मीत मेरे’ से प्रेरित यह शीर्षक इस संग्रह की अधिकतर रचनाओं का प्रतिनिधित्व करता है। संग्रह की अधिकतर रचनाएँ पीड़़ा और प्रेम की पराकाष्ठा का शब्दचित्र हैं। निश्चित रूप से जीवन के किसी न किसी मोड़ पर ऐसे भावों से प्रत्येक व्यक्ति दो- चार होता ही है। ‘मन्त्रमुग्धा’ शब्दों के माध्यम से उन्हीं अनुभूतियों को प्रस्तुत करने का एक विनम्र प्रयास है। उल्लेखनीय है कि काव्य का उद्देश्य पाठक के मन तक पहुँचकर उसके भावों को उद्वेलित करना मात्र नहीं अपितु; औषधि के समान मर्म का उपचार भी है। अनेक बार जीवन में ऐसी स्थिति आती है; जब हम अपनी बात किसी से नहीं कह पाते; ऐसे समय में कविता हमें आत्मीयता प्रदान करती है। ऐसी स्थिति में कुछ रचनाओं से हम स्वयं को जुड़ा हुआ पाते हैं और उनमें गहनता से उतरते चले जाते हैं। इस दृष्टिकोण से पाठक ‘मंत्रमुग्धा’ में प्रस्तुत रचनाओं से स्वयं को जुड़ा हुआ अनुभव करेंगें।
रचनाओं में प्रेम और पीड़ा की अभिव्यक्ति व्यक्तिपरक होते हुए भी व्यक्तिगत नहीं है; क्योंकि आज यह पीड़ा अधिसंख्य वर्ग की है। आज भौतिक रूप से सम्पन्नता के चरम पर प्रतिष्ठित व्यक्ति भी ऊब चुका है और वह एक गहन और चिर शान्ति की खोज में है। वह आनन्द की खोज में है। यह पीड़ा अधिसंख्य वर्ग की होने के कारण रचनाओं के विषय सामाजिक कहे जा सकते हैं। जब हम पीड़ा की बात करते हैं, तो एक शब्द मन में घूमता है- दुःख। सनातन सभ्यता के आदर्श ग्रन्थ के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता में दुःख से मुक्ति के लिए बहुत से मार्ग बताए गए हैं- जैसे कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग इत्यादि। कल्याण हेतु व्यक्ति इन मार्गों में से किसी भी मार्ग को अपना सकता है; किन्तु इन मार्गों में स्वाध्याय भी अपरिहार्य है। यदि कविता दार्शनिक ढंग से मनन का हेतु बन जाए, तो बात ही निराली होगी। ‘मंत्रमुग्धा’ कुछ इसी प्रकार का विश्लेषण करने का प्रयास है। यह मन को उद्वेलित करने के साथ ही एक प्रकार की आत्मविश्लेषण- प्रक्रिया का विचार भी कहा जा सकता है। हम मानव हैं और इस नाते हमारे विशिष्ट दायित्व भी हैं। ‘मन्त्रमुग्धा’ इनकी ओर ध्यान आकृष्ट करने का एक प्रयास है; इसीलिए यह संग्रह मन का दर्पण होने के साथ ही दर्शन प्रक्रिया भी कहा जा सकता है।
पाठकों के मन तक पहुँचना और तदनुसार स्वयं को प्रस्तुत करना वस्तुतः यान्त्रिक लेखन से सम्भव नहीं। यह संग्रह कोरी छन्दबद्धता नहीं; अपितु जो भी तत्क्षण भाव- प्रवाह रहा हो; उसी के अनुसार स्वयं को शब्दों में ढालने का प्रयास मात्र है। यहाँ यह कहना प्रासंगिक है कि केवल छंद कविता की कसौटी नहीं हैं। ऐसा होने पर काव्य में अनुभूति हो; यह कहना थोड़ा कठिन है। हालाँकि हो सकता है कि छंद में बँधी हुई रचना में भी भाव कूट-कूटकर भरे हों; लेकिन कभी-कभी ऐसा नहीं भी होता है। इस दृष्टि से ‘मंत्रमुग्धा’ में प्रस्तुत की गई रचनाओं को भावप्रवण कहा जा सकता है; क्योंकि इनका प्रभाव तो पाठक ही तय करेंगे; किन्तु मेरे अंतस् से निःसृत हैं; इसलिए मैंने पूरा प्रयास किया है कि भावपक्ष का निर्वाह हो सके। शेष आप सभी पाठकों का स्नेह और आत्मीयता पूर्व की भाँति मेरा अधिकार बने रहेंगे; ऐसा पूर्ण विश्वास और अपेक्षा है। सादर और सप्रेम ‘मंत्रमुग्धा’ आप सभी को समर्पित है।
स्नेहाकांक्षिणी
डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री‘