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द्वारिका / शुभा द्विवेदी

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अविश्वसनीय है, हैरान हूँ यह जानकर
कि तुम मान रखते हो
स्त्री गरिमा का
कि तुम्हे भान है
स्त्री थकन का
तुम समझते हो कि
नहीं है नारी एक चलता फिरता
हाड मांस का खिलौना
स्वेद बिंदु पौंछते हो तुम
जो आ जाते हैं उसके लालिमा युक्त ललाट पर
जानते हो कि यही स्वेद बिंदु बहाती
है वह अपनों के लिए
तुमने भी गढ़ रखे हैं श्री सौपान
प्रत्येक सौपान पर अवस्थित किया है
माता पत्नी बहन को
पुरुषोचित सूक्ष्म अहंकार से
परे तुम्हारा वैभवशाली व्यक्तित्व
बसायी है ऐसी द्धारिका
जिसमे स्थान दिया है समुचित सभी को
युगों युगों से सत्यापित प्रेम का बीज जो तुमने
 बोया है इस उम्मीद के साथ
कि खड़ा हो सकेगा विशाल वट वृक्ष
और मानवता विश्राम पाएगी
जिसकी घनेरी छाया में।