पिता और कविता / रामकुमार कृषक
पिता, तुम्हारे ऊपर मैंने
कविता नहीं लिखी !
लिखी नेह पर और गेह पर
आँगन - ओसारे पर
माँ की ममतामयी छाँव पर
नीम सजे द्वारे पर
लिखी राह में बाट जोहते
बच्चों की आँखों पर
अपने ही बूते अपनों के
सपनों की पाँखों पर
बेशक तुम थे यहीं कहीं जब
कविता मुझे दिखी ....
लिखी मौसमों के तन-मन पर
ऋतुपति पर पतझर पर
फाग-राग आल्हा-कजरी पर
नदियों पर निर्झर पर
लिखी अक्षरों की संगत-
शब्दों की आव-भगत पर
चौपालों पर बड़े-बुजुर्गों की
सेवा-सोहबत पर
बेशक तुम थे यहीं कहीं जब
कविता मुझे दिखी ....
लिखी पसीने के सीने पर
मिट्टी से रिश्तों पर
मेहनत के ख़ाली हाथों में
कर्ज़े की किश्तों पर
लिखी लौह घन की चोटों पर
पथरीले बिस्तर पर
रिश्तों की टूटन से दरके
बँटे हुए घर-घर पर
बेशक तुम थे यहीं कहीं जब
कविता मुझे दिखी ....
लिखी हार पर, लिखी जीत पर
अनथक संघर्षों पर
दुख-दारिदग्रस्तों के जीवन
नैतिक आदर्शों पर
लिखी पहरुओं के जागर पर
साहस पर बूते पर
मछलीदार बाजुओंवाले
कसबल अनकूते पर
बेशक तुम थे यहीं कहीं जब
कविता मुझे दिखी ....
लिखी झोंपड़ी के पाँवों पर
महलों के माथों पर
पगडण्डी-सड़कों से लेकर
टूटे फुटपाथों पर
लिखी देश पर, गाँव-शहर पर
खेतों-खलिहानों पर
मैदानों की तैयारी पर
विप्लव-अभियानों पर
बेशक तुम थे यहीं कहीं जब
कविता मुझे दिखी ....
पिता, तुम्हारे ऊपर मैंने
कविता नहीं लिखी !