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छठा तत्व है प्रेम / गीता शर्मा बित्थारिया

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कोई तो है
कुछ तो है
 जो
बीज में पेड़
छिपा रहा है
कलियों में
सुरभि भर रहा है
पुष्पों को
मकरंद दे रहा है
तितलियों के
पंख रंग रहा हैं
विहगो को
गाना सिखा रहा है
सीपी में
मोती छिपा रहा है
श्वासो में कस्तूरी
महका रहा है
जुगनुओं को
रश्मि कण दे रहा है
बादल में
इंद्रधनुष टांक रहा है
नदी को
समुद्र का रास्ता बता रहा है
धरती से
सूरज के परिभ्रमण करवा रहा है
क्या ये पांच तत्वों का रचा संसार है
जो जड़ में जीवन भर रहा है

क्या पंच तत्वों ने अलग अलग
या मिली भगत से निभाई है
ये अनूठी रचनाधर्मिता
भूमि अग्नि जल गगन समीर
इन्हीं पांच तत्वों से बना है
ये ब्रह्मांड
ये सृष्टि ये प्रकृति
दृश्य अदृश्य परिदृश्य
हद अनहद
अतल वितल
भूलोक देव लोक
अनन्त विहंगम
रचना लोक

नहीं
जड़ता
कहां कुछ रचती है
सुना है कभी
तिमिर से जगमगाया है
तिमिर लोक

सारी सृष्टि
अलौकिक छठे तत्व का
प्रतिसाद है
परम पुरुष ने
परम प्रकृति संग
सृजित किया
जब छठा तत्व
प्रेम का
तब जाग्रत हुई
अखिल सृष्टि की चेतना
सृष्टि ही प्रेम
और प्रेम ही सृष्टि रचना

प्रेम तो
चैतन्यता का पर्याय हैं
कितना अद्भुत है
कितना सुन्दर है
प्रेम से रचा गया
ये सारा संसार है
प्रेम का जादुई स्पर्श
जड़ को कर रहा है
चैतन्य
प्रेम तो
प्रभु की
सुंदरतम रचना है
प्रेम ही
ईश्वर का
उपहार है
प्रेम प्रभु की
सृजनशीलता का
प्रमाण है
प्रेम प्रभु की
प्रयोगधर्मिता का
श्रेष्ठतम
आविष्कार है
प्रेम
मानव सभ्यता के
इतिहास में
सबसे बड़ी
क्रांति है