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शक्ति पीठ / गीता शर्मा बित्थारिया

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स्त्री इतनी
स्वतंत्र नहीं होती
कि चुन ले अपना
चिर याचित प्रेमी
अगर चुन लेती है तो
विवश हो
कर लेती है
यज्ञ की अग्नि में
आत्मदाह
स्वयं को अपनों में
अपमानित पाकर
या फिर
झूठे दंभी सम्मान के साथ
जला दी जाती है
स्वजनों द्वारा ही
कर दिया जाता है
उसका अंतिम संस्कार
उसकी मृत्यु से पूर्व ही
पर
जहां जहां भी गिरते हैं
उसके भग्नावशेष
वहां वहां बन जाते हैं
शक्ति पीठ


शक्ति पीठ
जहां जाते हैं लोग
पूजते हैं स्थल
अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु
झुकाते हैं शीश
करते हैं याचना
मांगते हैं मन्नत
अपराध बोध से ग्रसित
वे लोग भी जिन्होंने
जुटाई थी
सूखी लकड़ियां
इस अग्नि के लिए
मानो क्षमा प्रार्थी हो
निरपराध स्त्री से उसका
निश्छल प्रेम
छीनने के लिए