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निरीह लड़कियांँ / महेश कुमार केशरी

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निरीह, लड़कियांँ भी लेतीं हैं
सांँस, इस धरा पर
,जैसे और लड़कियांँ
लेतीं हैं सांँस

उनके, भी होते हैं
दो, हाथ दो, पैर
और दो आंँखें

काकी, अक्सर कहतीं थीं
लड़कियों को ज्यादा जोर
से नहीं हंँसना चाहिए

ज्यादा जोर से हंँसने से
 "लड़कियांँ" बदचलन हो
जाती हैं

काकी आगे कहतीं-
हंँसना है तो, मुंँह पर
कपड़ा रखकर हंँसो
हंँसी बिल्कुल भी
बाहर, नहीं निकलनी
चाहिए

हंँसी जरा सी
बाहर निकली और
लड़कियांँ, बदचलन हो
जाती हैं

हमारे घर में हमारी एक
बुआ रहतीं थीं
रोज सुबह-उठकर गंगा नहाने
जाती

गाय को हर वृहस्पतिवार
को चना और गुड़ खिलाती
सारे धार्मिक कर्म-कांँड़ करती

मनौतियाँ मांँगती
आस-औलाद के
लिए
और फूफाजी की
वापसी के लिए

क्योंकि, बुआ
नि: संतान
थी
और फूफा सालों
बाद भी फिर कभी नहीं
लौटे!

बाद, में पता चला फूफा जी
ने दूसरी शादी कर ली है

बुआ, अलस्सुबह ही उठतीं
चिड़ियांँ-चुनमुन के उठने से
बहुत पहले

घर, के बर्तन-बासन से लेकर
झाड़ू-बुहारू तक करती

खेतों में हल चलातीं
फसलों को पानी देती

काकी कहतीं कि, फूफाजी
के छोड़ने से पहले बुआ बहुत
हंँसती थीं

याकि लोग कहते कि
तुम्हारी बुआ बदचलन हैं
इसलिए भी फूफाजी ने
उन्हें छोड़ दिया है

फूफाजी के चले जाने के
बाद, बुआजी उदास-सी
रहने लगीं फिर, वे कभी
खिलखिलाकर नहीं हंँसीं

छाती-फाड़कर
समूचे, घर और खेतों
का काम अकेली
करने वाली
बुआ जब हंँसती-बोलतीं
नहीं थीं तो वह आखिर, बदचलन
कैसे हो गई ।?