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अफ़सोस / आलोक कुमार मिश्रा

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ऐसे समय में जब
धार्मिकों एक भीड़ लहराते हुए हथियार
और लगाते हुए भड़काऊ नारे
निकाल रही है मेरे ही पड़ोस में
एक अशोभनीय शोभा यात्रा
मैं लिख रहा हूँ कविता

उस यात्रा के डर से
सहमी हुई मेरी एक पड़ोसन
बच्चों को करके भीतर
बंद कर रही है खिड़की और दरवाज़े
ईश्वर भी थरथरा रहा है उसकी भय से भरी कामना में
मैं अपने घर में लिख रहा हूँ कविता

गली की दाईं छोर के घर का वह बेरोज़गार लड़का
जो करके गया है खुशामद कल ही
एक अदद नौकरी दिलाने की
वो बन गया है आज उसी भीड़ का हिस्सा
बदल गई है उसके गुस्से और खीझ की दिशा
उसे मिला ये रोजगार और मैं लिख रहा हूँ कविता

अफ़सोस कि जब मुझे भीड़ के सामने तान सीना
झेलने चाहिए थे पत्थर
भयभीत पड़ोसी के दरवाज़े पर
बनना चाहिए था प्रहरी
उन युवाओं के साथ मिल खटकना चाहिए था व्यवस्था को
मैं महज़ लिख रहा हूँ कविता।