1
कूप तरसते नीर को, मिटती है कब प्यास ।
सूखी हैं नदियाँ सभी, तट भी हुए उदास ॥
2
लिख-लिख पाती भेजता, यह मौसम प्रतिकूल ।
कंधे चढ़कर चल रही, पथ की अंधी धूल॥
3
टँगी हवा है नीम पर, झुलस उठी है छाँव।
सामन्ती दोपहर में, क़ैदी है हर गाँव ॥
4
आँखों में चुभने लगी, किरच-किरच बन धूप ।
सूनी-सूनी माँग-सा, लगता है अब रूप ॥
5
सबको अपनी है पड़ी, बन्द हैं मन के द्वार।
रह-रहकर चुभने लगी, सुधियों -पगी कटार॥
-0-[8-9-85: वीणा अक्तुबर-85]