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वेदना की राह में / विनीत मोहन औदिच्य

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मैं सदा ही धूप में चल, बस अकेला ही रहा
सब दुखों का ताप झेला,मार्ग का प्रस्तर सहा
जो कभी थे साथ मेरे, दूर सब होते गए
वेदना की राह में कुछ, मीत भी पाये नए।

थी निराशा घोर मन में, चित्त आकुलता भरा
अवगुणों को मैं छुपाता, हर अंधेरे से डरा
ध्यान में भीतर उतर कर,सोच कर अपना भला
ज्ञान का तब नूर उभरा, दीप आशा का जला ।

थी मधुर सी तान कोमल, हिय मेरा जिसने छुआ
बज उठी मंदिर सी घंटी, रोम हर पुलकित हुआ।
प्राण फूटे कंठ से जब,इक नयी गाथा कही
भावना का वेग उमड़ा, अश्रु की धारा बही ।

स्वयं को श्रृद्धा संजोए जब समर्पित कर दिया
प्रभु की पावन कृपा का, पुष्प मैंने पा लिया ।।