लो पोथियाँ हमने पुरानी ताक पर रख दी धूल झाड़ी खूब हमने अपने मिटे इतिहास की। मन रँगाने के लिए थे कुछ कदम ही हम चले छेड़ दी चर्चा किसी ने
फिर देख लो संन्यास की ।
घूँट भर की प्यास केवल और जंगल में कुँआँ किसी द्वार पर दस्तक न दी और न माँगी दुआ अभिशाप काँधे पर लिये अँजुरी- भरे उपहास की। पोटली में थीं नहीं अजगरी शुभकामनाएँ अपने लिए तो कोष में थी सिर्फ़ वंचनाएँ हम दूसरों को भला देते सज़ा क्यों प्यास की।