Last modified on 4 नवम्बर 2022, at 09:32

छाप जीवन की / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:32, 4 नवम्बर 2022 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

फिर कुहुक
 बनकर समाई
याद मधुबन की।
रोम में
जगने लगी है
गन्ध चन्दन की ।
थामकर
 बैठे रहे
अरुणाभ किरणों की हथेली
लाज से
सकुचा गई थी
भोर की दुल्हन अकेली
तीर पर उतरी नहाने
रुपसी मन की ।
डबडबाती
आँख -सी है
रूप की यह झील निर्मल
पास में
सुधियाँ तुम्हारी
जैसे तुम हो लहर चंचल
ढूँढता हूँ
हर लहर में
छाप जीवन की ।
-0-