भीड़ में स्त्री-स्वर / मंजुला बिष्ट
भीड़ चिंतित ही नही
संकुचित और भयभीत भी हो उठी थी
उस तीव्र आर्तनाद से जो,
किसी अकेली स्त्री के कंठ से गूँज रही थी!
किसी स्त्री के
मौनिक-इतिहास के स्वरूप के दरकने मात्र से
भीड़ व्यक्तिगत तौर पर बेहद डरपोक है!
निमिष-भर में
भयाक्रांत भीड़ उस अकेली स्त्री को
तितलियों के जीवाश्मों तक खींचके ले गयी
जिनके कंठ की उम्र का हिसाब नदारद था
बस
रंगरोगन की हुई भीतों,स्थापित पत्थरों पर
टूटे-नुचे रंगीन पंखों की कुछेक अधूरी उड़ानें अंकित थीं
जबरन मोड़ी हुई एकाध दिशाएँ भी असहाय खड़ी थीं
उन रंगीन पंखों की उम्र या तो बेहद कम थी
या जो वयस्क पाई भी गईं थीं
तो वे भी
उन सार्वजनिक मंचों पर हल्का दाग तक नहीं लगा पाई थीं
भीड़ के साथ बराबर चिल्लाने की तो छोड़िए,साहेब!
भीड़ में अपनी आवाज़ को खोजती
कोई अकेली स्त्री
विलुप्त हो चुकी किसी भाषा की तरह है!