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उर में सागर / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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मिले अधरों से अधर
महके धरती अम्बर
छनी हाला अंगूरी।

उर में सागर छलके
मद से बोझिल पलकें
कपोल हुए सिंदूरी।

खुले लाज- भरे बोल
रहे मादकता घोल
साधें हो गईं पूरी।

मन में उठी तरंग
तन भी डूबा है संग
मिट गई सारी दूरी।
(10-5-84: कश्ती मार्च 85)