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बदलाव / चंद्रदेव यादव

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अजादी के बाद
मुआरी हो गइल गाँव
हरित क्रांति के फुआर से
सुगबुगाइल
पौ फाटल
सब कर चेहरा हरियाइल
बाकी येह बिकास के चकचोन्ही में
बिला गइल समाज-भाव
रमी खेलत क भूल जालें लोग
कि पड़ोस में गमी ह

एक पीढ़ी के सड़ए
चल गइल रहट-ढेंकुली
दुसरी के सड़ए दोन-दउरी
अ तिसरी के सड़ए जाँत-जँतसार
हुक्का-चीलम—कहनी-खिस्सा

सच में
एक कदम आगे बढ़ावत क
छूट जाला पीछे एक कदम

वोहि दिन
खूँटी और टँगल हुक्का देख के
लगल
जइसे सूली पर चढ़ा दीहल गइल हो
एक जुग
जुग के साथ समाज क एक रीत
एक परम्परा
अ भासा क कुछ कहाउत
कुछ रंग
हाँ, बेचना जरूर खुस भइल
कि ओके मुक्ती मिल गइल
चिलम भरले से

हुक्का खूँटी पर टँगा गइल
येह बदे ना
कि तमाखू महंग हो गइल
येह बदे कि
नइकी पीढ़ी के नजर में
चरस-सिगरेट
सस्ता हो गइल तमाखू से
फिर फटफटिया-कार के जुग में
हुक्का-चीलम क बातै बेकार ह
जइसे सनीमा के जुग में
बिदेसिया अ नाच-नौटंकी क
जेब में पइसा होवे के चाही
पइसा हलाली क हो चाहे दलाली क
जेकरी जेब में पइसा ह
ऊ बजार क सरदार ह
फिर दूध बेच के ताड़ी–सराब पियले में
हर्जा का ह?

रहीसी बदे जरूरी ह
सराब-कबाब
अ सराब-कबाब बदे
चारों लंग बजार ह
सच में निठल्लन बदे
बजार जरूरत ना
सउख ह

जउने देस में
निकम्मापन रहीसी क निसानी होय
वोह देस में
हुक्का क सराध काहें ना होई
प्रेम-मोहब्बत काहें न जरी चूल्ही-भाड़ में
काहें न बढ़ी
इरखा-बयर-तकरार

माना न माना
नइकी पीढ़ी
अपने सुबिधा खातिर
दुबिधा में ना पड़त l