लौट रहा हूँ कहीं रख लो / अजय कुमार
वक्त की शाख पर खिला
एक आखिरी फूल हूँ
मौसम का
तुम चाहो तो
हाथ बढ़ा के टाँक सकती हो
उसे अपने जूड़े में
सूखा हुआ भी रखा रहेगा
तुम्हारी मेज पर
एक याद की तरह
मेरी बातों पर
जब तुम मुस्कुराती हो
तो मेरी कसूरवार याददाश्त
ढूँढ लेती है
वह एक गलत जगह
जहाँ तुम उस दिन खड़ी रहकर भी
जीत गई थी
और मैं बिल्कुल
ठीक जगह पर खड़ा
तुमसे फिर हार गया था
सच कहता हूँ -
पर आज मैं लौट रहा हूँ
अपने अंतरिक्ष में
जैसे लौट जाते हैं भादों के बाद
सूखे सफेद खाली बादल
या एक जिंदगी भर का थका मजदूर
लौटता है वापस अपने गाँव
मैं भी आखिरी हूँ
अपने किस्म का
चाहो तो
मुझे अब भी घोलकर रख लो
अपने फेवरेट परफ्यूम की शीशी में
या मेरी तह बनाकर
एक रूमाल की तरह रख लो
अपने मन की किसी खाली दराज़ में....