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दोहे-1 / मनोज भावुक

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हई ना देखs ए सखी फागुन के उत्पात।
दिनवो लागे आजकल पिया-मिलन के रात॥1॥

अमरइया के गंध आ कोयलिया के तान।
दइया रे दइया बुला लेइये लीही जान॥2॥

ठूठों में फूटे कली, अइसन आइल जोश।
अब एह आलम में भला, केकरा होई होश॥3॥

महुआ चुअत पेड़ बा अउर नशीला गंध।
भावुक अब टुटबे करी, संयम के अनुबंध॥4॥

बाहर-बाहर हरियरी, भीतर-भीतर रेह।
जले बिरह के आग में गोरी-गोरी देह॥5॥

भावुक हो तोहरा बिना कइसन ई मधुमास।
हँसी-खुशी सब बन गइल बलुरेती के प्यास॥6॥

हमरो के डसिये गइल ई फागुन के नाग।
अब जहरीला देह में लहरे लागल आग॥7॥

मन महुआ के पेड़ आ तन पलाश के फूल।
गोरिया हो एह रूप के कइसे जाईं भूल॥8॥

हँसे कुंआरी मंजरी भावुक डाले-डाल।
बिना रंग-गुलाल के भइल गुलाबी गाल॥9॥

जब-जब आवे गाँव में ई बउराइल फाग।
थिरके हमरा होठ पर अजब-गजब के राग॥10॥