प्रेम का प्रस्ताव केवल / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
मत समझना कर रहा हूँ, मैं निवेदन काम-रति का,
है समर्पित और निस्पृह, प्रेम का प्रस्ताव केवल।
देह यदि होती अभीप्सा, तो कहाँ उर नेह पलता?
यदि न होता मन तृषित तो, री! कहाँ निज गेह खलता?
हैं मिले मुझको जगत से, घाव ही बस घाव केवल,
है समर्पित और निस्पृह, प्रेम का प्रस्ताव केवल।
लौट आतीं हैं क्षितिज को, चूमकर मृदु भावनाएँ।
लोग कहते 'वाह' जब रिसती द्रवित हो उर-व्यथाएँ।
मोल कोई भी न गुनता, सब लगाते भाव केवल,
है समर्पित और निस्पृह, प्रेम का प्रस्ताव केवल।
नेह की मृदु व्यंजना है, पर कहो किससे जताऊँ?
ये कि मन चंदन हुआ है, तुम कहो किसको बताऊँ?
एषणा है पा सकूँ, तुमसे मधुर बर्ताव केवल,
है समर्पित और निस्पृह, प्रेम का प्रस्ताव केवल।
सत्य! तुमको ढूँढता है, आजकल मन नित्य मेरा।
गीत! यदि आहत करे तो, क्षम्य हो पातित्य मेरा।
हो सके तो दो भटकते, चित्त को ठहराव केवल,
है समर्पित और निस्पृह, प्रेम का प्रस्ताव केवल।