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बाढ़-चार कविताएँ / अमरजीत कौंके

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1,
तुम्हारा किया
अब हमें मीठा नहीं लगता

जो हमसे हमारे घर छीन लेता है
हमारे बेज़ुबान मवेषी
बहा कर ले जाता है
भर यौवन पर पहुँची
हमारी फसलें
उजाड़ कर रख देता है
हमारी वर्षों की मेहनत
मिट्टी में मिला देता है

तुम्हारा किया
अब हमें मीठा नहीं लगता
जो हमसे हमारी खुशियाँ छीन कर
हमें कंगाल कर देता है
हमारे बच्चों के सिर से छत
और होठों से अन्न छीन लेता
जो हँसते-खेलते गाँवों को
बना देता है खंडहर
जगमग करते कस्बों को
बेचिराग कर देता है

तुम्हारा किया
अब हमें मीठा नहीं लगता

2,
वे घरों को कैसे लौटेंगे
बिलकुल खाली, बेघर
टूटे हुए, थके-हारे

कैसे पड़ेगी उनकी पहली नजर
ढह चुके घरों के मलबे पर
कैसे ढूँढेंगे वह मिट्टी से
अपने अपने घर के नक्श

घर कि जहाँ
सपने साँस लेते थे
जहाँ खुशियों का मेला था
आधी-आधी रात तक जहाँ
गूँजती थी किलकारियाँ

नयी फसल आने पर
जहाँ इच्छाओं ने पहनना था
हकीकत का लिबास
बच्चों को खिलौने मिलने थे
औरतों को गहने
बुजुर्गों को
खद्दर के मोटे कपड़े
वो घर जैसे भी थे
लेकिन स्वर्ग जैसे थे

फिर पानी आया
बहा कर ले गया सब कुछ
बच्चों के खिलौने
औरतों के गहने
बुजुर्गों के कपड़े

बचा तो बस
ईंटों का ढेर
पानी की बदबू
गला-सड़ा धान
और
उदास आँखों में काँपते आँसू।

3,
हम फिर उठेंगे
ईंटें इकठ्ठी करेंगे
और घर बनाएंगे

हम फिर उठेंगे
गल चुकी फसल में हल जोत कर
उसकी खाद बनाएंगे
और नयी फसल के लिए
जमीन तैयार करेंगे

हम फिर उठेंगे
हम भूल जाएँगे
उजड़े घर
नष्ट हुई फसलें
मर चुके मवेशी
बाढ़ में बह गए सगे सम्बंधी

हम भूल जाएंगे
कि कैसे दरिया हदें तोड़ कर
हमारे घरों में घुस आया
दुखों का पानी है
धीरे धीरे उतर जाएगा

हम फिर उठेंगे
उजड़ चुके गाँवों को
नए सिरे से बसाएंगे
बेचिराग हुई बस्तियों में
फिर से चिराग जलाएंगे
खेतों की
मटमैली हो चुकी कैनवस पर
फिर से रंग भरेंगे
और जिंदगी की मशाल को
नए सिरे से प्रज्जवलित करेंगे।

4,
काश!
कि मेरी सारी कविताएँ जोड़ कर
एक घर बन सकता
जिसमे बेघर हुआ
कोई परिवार ठहरता

काश!
कि मेरी सारी कविताएँ जोड़ कर
एक नाव बन सकती
जिसमें छतों पर खड़े
वृक्षों पर चढ़े लोग
पार पहुँचते

काश!
कि मेरी सारी कविताएँ जोड़ कर
एक जाल बन सकता
जिस में सारी उम्र गँवा कर जुटाया
किसी का सामान अटक जाता

काश!
कि मेरी सारी कविताएँ जोड़ कर
एक विशाल बाँध बन सकता
जो दरिया को
टूटने से रोक लेता।