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रोशनी की तलाश में / अमरजीत कौंके

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आगे सघन जंगल है
अँधेरा है
डरावनी आवाज़ों का शोर है
काली हवाओं की सांय-सांय है
वृक्षों पर साँप फुँकारते
पाँवों में टूटी दीवारों की
किरचें चुभती हैं

आग बरसाती
लाल सुर्ख आंखें चारों तरफ
रोशनी का लेकिन
दूर तक नामो निशान नहीं

जगह-जगह हमारे पांवों में आवाजे़ं उलझती
बच्चों के बिलखने की आवाज़
किसी के सिसकने की आवाज़
कभी आवाज़ें आती पूर्वज़ों की
वापिस बुलाती

हम आवाज़ों के इन बीहड़ों में भटकते
क्षण भर के लिए रुकते
संभलते, फिर चलते
एक-दूसरे का हाथ पकड़े
अदृश्य रोशनी की तलाश में।