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माँ के लिए सात कविताएँ / अमरजीत कौंके

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1,
बहुत भयानक रात थी
ग्लूकोज़ की बोतल से
बूँद-बूँद टपक रही थी मौत
कमरे में माँ को
किसी मगरमच्छ की तरह
साँस-साँस निगल रही थी

बचपन के बाद
मैं माँ को पहली बार इतनी देर तक
इतना नज़दीक से देख रहा था
उस का भरा शरीर
घर को बाँधता
कितना जर्जर हो गया था

बाहर आँधी दहाड़ती
तूफ़ान चीखता
तड़प-तड़प कर गरजती बिजली
टूट कर गिरते पेड़
गिरते साईन बोर्ड

एमरजेंसी रूम में
सफेद चादर पर पड़ी निश्चल
माँ मौत से लड़ रही थी
और हम तीनों भाई-बहन
अपनी बेबसी के साथ

आखिर जिस्म का
पिंजरा तोड़ कर
उड़ गया
उसकी साँसों का परिंदा

वह परिंदा
अब अक्सर
मेरे दिल में छटपटाता है।

2,
मैंने अपने सामने
माँ को साँस-साँस मरते देखा
हमारी बेबसी के सामने
हथेलियों में से
बूँद-बूँद बन कर
फिसल गई वह

घड़ी की टिक-टिक
हमारे मस्तक में
किसी भारी हथौड़े की तरह
बजती रही रात भर

अपने कन्धों पर
उठा कर ले गए
माँ की अर्थी को हम
अपने हाथों से अग्नि दी
उसके शरीर को पाँच तत्वों में
विलीन होते देखा

हमारे सामने जिस्म से
राख बन गई वह

खाली हाथ लौट आए हम
माँ को धू-धू जलती
अग्नि में छोड़ कर

लेकिन फिर भी
माँ की आवाज़ें
कभी रसोई से
कभी कमरे से
कभी आँगन से
सुनाई देतीं

अभी वह यहाँ खड़ी
महसूस होती
अभी वहाँ

माँ चली गई
राख हो गया जिस्म उसका
पाँच तत्वों में मिल गया

लेकिन कुछ है
जो अभी भी इस घर में है
जो अभी भी महसूस होता है।

3,
मैंने अपने
काफ़िर हाथों से
माँ को अग्नि दे दी

मेरे जन्म से पहले
माँ ने जिस पेट में
मुझे सँभाल-सँभाल कर रखा
दुनिया की हर बला से बचा कर
मैंने अपने काफ़िर हाथों से
उस पेट को अग्नि दे दी

जिन बाजुओं में उठा-उठा कर
माँ मुझे झूलाती रही
लाड लडाती रही
मैंने अपने काफ़िर हाथों से
उन बाजुओं को अग्नि दे दी

जिन अमृत-óोतों से
उसने दूध पिला-पिला कर
मुझे बड़ा किया
मैंने अपने काफ़िर हाथों से
उन दूध के चश्मों को
अग्नि दे दी

माँ
जिसे लोग ठंडी छाँव कहते
मैंने अपने काफ़िर हाथों से
उस ठंडी छाँव को अग्नि दे दी

मैंने माँ को अग्नि दे दी।

4,
घर को कभी ना छोड़ने वाली माँ
उन अँधे रास्तों पर निकल गई
जहाँ से कभी कोई
लौट कर नहीं आता

उस के जाने के बाद
सब कुछ उसी तरह है,
शहर में उसी तरह
दौड़े जा रहें हैं लोग
काम-काज में उलझे
चलते कारखाने
मशीनों की खड़खड़
काली सड़कों पर बेचैन भीड़
उसी तरह है

उसी तरह उतरी है
शहर पर शाम
ढल गई है रात
जगमगा रहा है शहर सारा
रोशनियों से भरा

सिर्फ एक माँ के नाम का
चिराग है बुझा हुआ।

5,
अब कहाँ होगी माँ
कहाँ होगा बसेरा उसका

आकाश में कोई
परिंदा बन कर उड़ती
सितारों में कोई
तारा बन कर जगमगाती
चंद्रमा के पास कहीं
कहाँ रहती होगी वह

मुट्ठी भर अस्थियाँ उसकी
प्रवाह कर आए हम
बहते जल में
पता नहीं किन समंदरों में
होगा बसेरा उसका

कैसे वह उस घर को
एकदम छोड़ कर चली गई
जिसको उसने
तिनका-तिनका कर के जोड़ा
थोडी-थोडी मेहनत मजदूरी करके
घर की छोटी-छोटी
ज़रूरतों को पूरा किया
छोटे-छोटे बच्चों को
उड़ान दी
कैसे वह उस घर को
एकदम छोड़ कर चली गई

सारी उम्र
घूमती रही वह पृथ्वी की तरह
तपती रही वह सूरज की तरह
पानियों में मिल कर
एक दम शान्त हो गई
मौन हो गई

पता नहीं अब
कहाँ होगी माँ!

6,
घर जाऊँगा
तो आँखें माँ को ढूँढेंगी
लेकिन कहीं नहीं होगी माँ
कोई आशीर्वाद नहीं देगा
माथा टेकने के बाद

कोई नहीं करेगा
अब छोटे-छोटे
दुखों-सुखों की बातें
छोटे-छोटे गिले-शिकवे, ताने
रिश्तेदारों के आने-जाने की
छोटी-छोटी अर्थहीन बातें
कोई नहीं सुनायेगा

लौटते वक्त
कोई नहीं देगा नसीहतें
माथा टेकने के बाद
सिर पर हाथ रखते
कोई नहीं कहेगा-

'अँधेरा होने से पहले
घर पहुँच जाना
और जा कर
फोन कर देना'

कोई नहीं कहेगा अब।

7,
जब से तू
गई है माँ!
घर घास के
तिनकों की तरह
बिखर गया है

तुम वृक्ष थीं एक
सघन छाया से भरा
घर के आँगन में खड़ा
जिसके नीचे बैठ कर
सब आराम करते
हँसते-खेलते
बातें करते
एक दूसरे के दुख-सुख में भागीदार बनते

जब से तू
चली गई माँ!
वह वृक्ष
जड़ से उखड़ कर गिर गया है

तुम्हारे जाने के बाद
सब कुछ वैसे का वैसा है
घर की छतें, घर की दीवारें
लेकिन बदल गए हैं
छतों के नीचे रहने वाले लोग
घर का आँगन वही है
लेकिन घर के आँगन में खड़ा
वह सघन छाया वाला वृक्ष
गिर गया है

गिर गया है वह वृक्ष
जिस के नीचे बैठ कर
सारे एक-दूसरे के साथ
बातें करते थे
एक-दूसरे का
दुख-सुख सुनते थे

अब वह वृक्ष नहीं रहा
जब से तुम चली गई
माँ!