कवि: द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
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आया लेकर नव साज री !
मह-मह-मह डाली महक रही
कुहु-कुहु-कुहु कोयल कुहुक रही
संदेश मधुर जगती को वह
देती वसंत का आज री !
माँ! यह वसंत ऋतुराज री !
गुन-गुन-गुन भौंरे गूंज रहे
सुमनों-सुमनों पर घूम रहे
अपने मधु गुंजन से कहते
छाया वसंत का राज री !
माँ! यह वसंत ऋतुराज री !
मृदु मंद समीरण सर-सर-सर
बहता रहता सुरभित होकर
करता शीतल जगती का तल
अपने स्पर्शों से आज री !
माँ! यह वसंत ऋतुराज री !
फूली सरसों पीली-पीली
रवि रश्मि स्वर्ण सी चमकीली
गिर कर उन पर खेतों में भी
भरती सुवर्ण का साज री !
मा! यह वसंत ऋतुराज री !
माँ ! प्रकृति वस्त्र पीले पहिने
आई इसका स्वागत करने
मैं पहिन वसंती वस्त्र फिरूं
कहती आई ऋतुराज री !
माँ! यह वसंत ऋतुराज री !