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छोकरागीरी / पीयूष दईया
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तेज़ मुक्के मारे धारासार इतने
अंधेरा था जहाँ गली में
वहीं गिर गया
मेरी हथेली पर
सब लाल लाल
लटके थे
ताम्बाई ताबीज़ गोधूलि के
--रोशनी
गली बाहर
चेहरा वह छिछड़ गया जो
दिखा नहीं फिर
"एक मुक्का भी कभी खुली हुई हथेली और उंगलियाँ था"-- येहदा अमिख़ाई की यह कविता-पंक्ति पढ़कर