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मन-दर्पन / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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कब तक सँवारोगे मेरे मन
यह धूल-भरा दर्पन

आते हैं जो चेहरे,
वे चेहरे नहीं होते
उनके घिसे माथे पर,लगा होता
धूर्त्तता का चन्दन ।

छाती ठोंक-ठोंककर,
जो रोज हैं बतियाते
हाव तक भी गरियाते
झुक-झुककर चरणों में
करते हैं वे वन्दन ।

निन्दा की धूल उड़ाकर
वे जीभरकर मुस्काते
अपना ही दाग़्ाी चेहरा
दर्पन में देख न पाते
दोषारोपण करके
करते हैं नित क्रन्दन ।

बहुत हो चुका अब तक
यह दर्पन दूर करो
गढ़ने दो सबको
अपना असली चेहरा
खिलने दो श्वेत कमल-सा
यह पावन अन्तर्मन ।
-0-(27/ 7 / 88)