यशोधरा-सी धरा को
नींद में छोड़कर
चले गए सिद्धार्थ-से बादल ।
फटी, खुली रह गईं बिवाई-सी
निस्तेज दरारें
दो बूँद पानी के लिए
रिसता रहा लहू
पपड़ाए होंठों-सा धरातल ।
हो गया तार-तार
जीर्ण-शीर्ण फसलों का
चिथड़ा-चिथड़ा आँचल ।
आकाश में उतरा सूरज
बटमार बनकरके
चला गया छाती पर
जलती किरणों का रोड रोलर
पल प्रतिपल ।
-0-(21/ 8/1987)