भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सुबह का दृश्य / विपिनकुमार अग्रवाल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:53, 12 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=विपिनकुमार अग्रवाल |संग्रह= }} <Poem> दूर से चली आ रह...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दूर से
चली आ रही
सदियों से
इतराती
ढोती
हर सुबह
सूरज-सा चमकता
पानी भरा
सिर पर धरा
कलसा

नीले आकाश में बादल
लगता है
माँ की गोद में हो
बच्चा

गोरी हैं गंगा
काली जमुना
फिर कौन हो तुम
गेहूँ-सी
दोनों के बीच

सारा दृश्य
झाँकता
अलसाई सुबह में
विलासिनी के
अंगों-सा।