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स्वतंत्रता / विलिमीर ख़्लेबनिकफ़ / वरयाम सिंह
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विवेक के चक्रवात में,
एक ही चक्रवात में
आओ, चल दें हम सब देवी के पीछे !
हंस के पंख की तरह
लोगों ने उठा रखी है श्रम की ध्वजा ।
स्वतंत्रता की जलती आँखें !
आग की लपटें भी ठंडी पड़ जाती हैं उनके सामने
उनकी भूख के
निर्मित हाने दो बिम्ब नए-नए !
मित्रो, आओ, चल दें गीतों की ओर !
स्वतंत्रता के लिए क़दम बढ़ाओ — आगे !
हम वे देश होंगे जो जी उठा है फिर से
हममें से हर एक हो उठेगा जीवित अब !
आओ, चलें उस ख़ूबसूरत राह की ओर
क़दमों की स्पष्ट आवाज़ सुनते हुए,
यदि देवता भी हो बँधे हुए बेड़ियों से
हम उन्हें भी प्रदान करें स्वतंत्रता !
—
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह