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नए मकान में / अशोक शाह

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नये मकान में जब गया
सामान करीने से सजाया
एक सिरे से दूसरे सिरे तक
कपड़े रखे किताबें
सब्जी और दालें
दुनिया का मानचित्र
रखा सब कुछ सहेजकर

पर आता नहीं समझ में
किस कमरे में रख दूँ
यह जीवन
दोगुनी खुशी हो जाए

मकान मेरी वृहत्तर देह हो गया
दिन में बढ़ता
रात में सपने देखता
मानों शहर छोड़कर घूम रहा हो
अपने पूर्वजों के घने जंगलों उपत्यकाओं
गिरि शिखरों पर जहाँ की मिटटी हो गयी ईट
और वृक्ष बन गये दरवाजे

मकान मेरेे पूर्वजों के संचित डर की इमारत है
इस डर में घुली है उनकी सभ्यता और संस्कृति
खोजता मैं हूँ शान्ति
मिलती नहीं
मन की अनन्त ऊँचाइयाँ
छत से टकराकर संतोष की
फर्श पर गिर जाती हैं

कैद रह गयीं मेरी इच्छाएँ इसकी दीवारों के बीच
अपना कद बढ़ातीं हुईं
आराम का लंगर डाले सुला देती रात को
उठकर सुबह गीत गाती मेरी मांसल उपलब्धियों का

मेरे घावों के ढँकने का आवरण न होकर
काश। मेरा मकान
मेरी जीवित आँखों की पुतलियाँ होता

आज सुबह-सुबह जब सोकर उठा हूँ
सोचता हूँ इस मकान की भव्यता के पीछे
रह जाए न छिपा मेरा कोई रहस्य और
बन न जाए सिर्फ इच्छाओं का भण्डार गृह

जान लेता सत्य तो
तान कर वितान सोता
सुबह की ओस के मुखाग्र सुनता
रात के झरोखों से झरता
सन्नाटों का अविछन्न संगीत
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