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दोहावली-9 / बाबा बैद्यनाथ झा

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कविता लेखन-धर्म में, जो भी हैं निष्णात।
होती है अनमोल ही, उनकी हर इक बात॥

अपना-सा था वह लगा, पर खोया विश्वास।
लूट लिया उसने मुझे, रहा न कुछ भी पास॥

वैसे तो मैं लिख रहा, विविध छंद या गीत।
कुंडलियों से हो गयी, है अतिशय ही प्रीत॥

जीवन के संग्राम में, नहीं हुआ भयभीत।
नहीं चाहता हार मैं, हरदम चाहूँ जीत॥

जीवन यौवन में छिड़ा, बड़ा भयंकर युद्ध।
यह जीवन संग्राम है, कभी न होवें क्रुद्ध॥

खाँसी आये चोर को, दासी रक्खे संत।
अकस्मात् पकड़े गये, फिर दुख भोग अनंत।

योगी बनते योग से, करे तपस्या संत।
कर्मयोग करते रहो, खुश होते भगवंत॥

भाईचारा दो निभा, जितनी हो सामर्थ्य।
तेरा भी होगा भला, है प्रामाणिक तथ्य॥

अपना जब कुछ भी नहीं, जग से फिर क्यों मोह।
यह तो अति सामान्य है, होना मिलन बिछोह॥