भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दोहावली-7 / बाबा बैद्यनाथ झा

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:03, 23 जनवरी 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाबा बैद्यनाथ झा |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गुण-अवगुण से युक्त सब, होते हैं इंसान।
बनते अपने कर्म से, दनुज कभी भगवान॥

श्रद्धा देती ज्ञान फिर, नम्र बने तो मान।
जगह दिलाती योग्यता, तीनों मिल सम्मान॥

सुख-दुख तो प्रारब्ध है, जिसको कहते भाग्य।
सब भोगो निर्लिप्त रह, यही मात्र वैराग्य॥

कड़वी गोली को निगल, लेता है इंसान।
आगे बढ़ जा भूलकर, छल, धोखा, अपमान॥

यह कहना 'मैं श्रेष्ठ हूँ' यही आत्मविश्वास।
मैं ही केवल श्रेष्ठ हूँ, झूठा है अहसास॥

मन विषयी, बंधन लगे, मन ही देता मोक्ष।
मन ही बंधन-मोक्ष का, कारण जान परोक्ष॥

इस तकनीकी दौर में, मानव मात्र मशीन।
नहीं बची अब भावना, सब संवेदन हीन॥

कलम उगलती आग जब, शब्द-शब्द में जोश।
देश समझ लो जग गया, दुश्मन सुन बेहोश॥

कागा जब कुचरे कभी, होता शुभ संकेत।
प्रिय पाहुन हैं आ रहे, तेरे शीघ्र निकेत॥