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न जाने किनसे रुष्ट हो! / कविता भट्ट

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ना जाने किनसे रुष्ट हो -
रोकर अपनी बात समझाना चाहती हो,
लेकिन किन्हें?
सामने तो पत्थर हैं
और पता ही होगा-
पत्थरों में
न रक्त, न धमनियाँ, न शिराएँ
न हृदय, न मन, न ही आत्मा
इसीलिए तुम अब
अँधेरों में खो जाओ कविते!
संभवतः नियति यही है।