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विजय पर्व / प्रताप नारायण सिंह
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रावण कभी भी तो न मारा जा सका
बस गात ही खंडित हुआ था
वाण से श्रीराम के.
वह प्रतिष्ठत है युगों से मनुज के भीतर,
सदा पोषित हुआ
आहार, जल पाकर
निरंकुश कामनाओं, इन्द्रियों का.
राम कोई चाप लेकर
खड़ा भी होता अगर है
लक्ष्य सारा-
मारना रावण सदा ही दूसरे का.
स्वयं का रावण विहँसता
खड़ा अट्टहास करता दसो मुख से,
सहम जाता राम
धन्वा छूट जाती है करों से.
यत्न सारा
विफल होता ही रहा
संहार का दससीस के.
बस प्रतीकों पर चलाकर वाण
है अर्जित किया उल्लास के कुछ क्षण मनुज ने.
किन्तु जब तक राम सबके
उठ खड़े होते नहीं संहार को
प्रथम अपने ही दशानन के,
सतत उठती रहेगी
गूँज अट्टहास की,
सहमते यूँ ही रहेंगे राम
विहँसता रावण रहेगा सर्वदा.