Last modified on 1 अप्रैल 2023, at 00:32

नारी और धरती / प्रताप नारायण सिंह

Pratap Narayan Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:32, 1 अप्रैल 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=प्रताप नारायण सिंह |अनुवादक= |संग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रूप धरा तुमने धरती का, या धरती ने रूप तुम्हारा ।
या फिर एक सृष्टि-गंगा की, तुम दोनों ही अविरल धारा।।

तन बोझिल दोनों का रहता।
भार सदा इस जग का सहता।
पर कोमल निर्मल अंतर्मन,
पीर किसी से कभी न कहता।।

दोनों जननी, सकल तुम्हारा, किन्तु अन्य को देती सारा।
रूप धरा तुमने धरती का, या धरती ने रूप तुम्हारा।।

सहकर पीड़ा सर्जन करती।
निज संतानों के दुख हरती।
कष्ट स्वयं के हिस्से में रख,
सबकी झोली में सुख भरती।।

स्वार्थ हेतु तुम दोनों ने ही, कभी नहीं कुछ भी स्वीकारा।
रूप धरा तुमने धरती का, या धरती ने रूप तुम्हारा।।

ताप कहाँ उतना दिनकर में।
जितना दोनों के अंतर में।
कहाँ जलद में जल है उतना,
जितना आँचल के सागर में।।

अग्नि, वरुण की क्या बिसात है, अटल काल भी तुमसे हारा।
रूप धरा तुमने धरती का, या धरती ने रूप तुम्हारा।।