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चुप्पी / गौरव गुप्ता
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अगर
उग आया है शिकायतों का पहाड़
तो किसी ज्वालामुखी की तरह उसे फट पड़ने की जगह दो
अगर बातों का बादल घुमड़ रहा है मन के ऊपर
तो बरस जाने दो
मैं था
मैं हूँ
मैं रहूँगा
पर चुप्प मत रहो, मेरी दोस्त
शिकायतों की आग जलायेगी मेरी चमड़ी
पर मैं तब भी जीवित रहूँगा
बातों की बारिश में भीग बीमार पडूंगा
पर हृदय धड़कता रहेगा
पर तुम्हारी चुप्पी,
तुम्हारी चुप्पी किसी नुकीले चाकू की तरह धसती चली जाती है मन पर
रिसता रहता है खून धीमे धीमे
और मैं मर रहा होता हूँ
मेरी इस मृत्यु यात्रा को स्थगित करो, मेरी दोस्त
मुझे आवाज़ दो
चुप्प मत रहो।